खुली किताब के पलटते पन्ने

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Sunday, June 5, 2011

ज़िन्दगी कहीं और भागती मालूम पड़ती है
सड़कों  पर दिन रात रेंगती दिखाई पड़ती है
मंदिर के घंटो और गाड़ियों की चिल्लाहट
के बीच... कुछ कम सी सुनाई पड़ती है .

अँधेरे कमरे में खुली खिड़की से आती रौशनी
तो कभी बागों में पेड़ों के झुरमुट से झांकती गिलहरी
सभी एक जानी पहचानी भाषा में बोलते लगते हैं
पर न जाने इस ज़बान में कोई अर्थ पनपता नई दीखता है

या शायद सही कहती है वोह की दूर का चश्मा 
लगाकर के भी मुझे कम ही दिखाई पड़ता है .

घर से निकलकर जब मेरा मन चहल कदमी करता है
तोह एक तीन माले की इमारत से कुछ झांकता आभास पड़ता है
शायद दिल में मेरे कोई वहम है
पर लोहे की उन घुमावदार सिडिओं  को देखकर
कुछ चक्कर से आने लगते हैं.

शायद उसी में उलझकर मेरा मन ऊपर नहीं  जा पाता 
उस झांकती सी छवि को अपने अन्दर से नई निकाल पाता.

खैर आगे बढते हैं.....
आजकल मकान कुछ ज्यादा ही बन गए हैं
पर घरों की कमी अभी भी खलती है.

खोखली नींव पर पक्के ढाँचे 
दिन पर दिन खड़े होते जा रहे हैं

थोडा जोर देकर  देखा जाए 
तो बाहर लगी शिला पर नाम भी लिखा रखा है
सालों साल बारिश और गर्मी से कुछ अक्षर 
कमज़ोर से लगते हैं
अपने अर्थ को बड़ी  मशक्कत से संभालते हुए से दीखते हैं.

आँखें ऊपर जातीं हैं तो 
कुछ रेखाएं आपस में लडती  रहती हैं
शायद मानव की ही तरह
खुद का अस्तित्व बनाने की कोशिश करती रहती हैं.

नीचे समंदर की मज़बूत लहरों से लड़ते पत्थर 
एक कहानी सी बयान करते लगते हैं
ऊपर दर्पण में खुद की छवि ढूँढ़ते  हैं शायद
तारों की रौशनी सोखकर
सूरज से आँखें मिलाते हैं यह

साइकिल रिक्शा को खींचते हुए
मजबूरी का भार उठाना भी दिखाई पड़ता है
ठेले पे बैठकर मासूम की चिल्लाहटों   
में भी कुछ बल मालूम पड़ता है 

सब्जियों के दाम पर ज़िन्दगी बिक रही है यहाँ
फिर भी जेबें खाली करने में
तोल मोल करने से नहीं चूकता कोई .

अब थकान सी मालोम पड़ती है
वापस आ गया यह मन अब घर

ध्यान आया की खिड़की खुली रह गयी थी गलती से
मेज़ पर रखे पन्ने बिखरे हुए पड़े  थे 

कुछ कोरे तो किन्ही पर ज़िन्दगी के 
कुछ अनकहे अनसुने पल लिखे हुए थे

हर पल आपस में बातें करता हुआ
खिलखिला रहा था .
जिंदगी को ही जीने का तरीका समझा रहा था

कलम भी खुली पड़ीं थी
शायद कोई रचना उगलना चाहती थी
पर अब लिखने का मन नहीं था .

पन्ने समेट के रख दिए
कलम बंद करके
ख़याल आया की कहीं सूख न गयी हो !
आखिर अगली बार लिखना जो था .

बरामदे से चिड़ियों ने मन को पुकारा
तो उठा
तो मानो लगा 
अब तो कुर्सी भी भार उठाते उठाते 
थक सी गयी है
पैर उसके अब जवाब दे चुके हैं
बैठते वक़्त आवाज़ भी करती है ज़रा सी

शायद मेज़ पर राखी ज़रूरी चीज़ों को नींद से जगाने के लिए.

चलो, खैर चश्मा लगा लूं 
अरे साहब ! दूर का भी जो देखना है .

वैसे आजकल तो पास से भी हर चीज़ दूर
जाती मालूम लगती है
शायद पूरी दुनिया ही
मेरे चश्मों के हिसाब से चलना सीख गयी है .

चलिए, ज़रा बाहर टहल के आते हैं.